पूजा - एक कविता। Offering - A Poem

पूजा कर्म ही धर्म है, धर्म एक कर्म पर दूसरोंको दुख देने वाले काम ना कर्म , ना धर्म। सव ए जानताहै, बताओगे तुम किसे, ए गजबका समय है यारों सब लगेहैं पैसे का खेल में। पैसा चाहिए ज्यादा, और ज्यादा! पैसा काम कैसे हो, नहीं परवाह, राजी है सब करने में सिर्फ बताओ पयसा कितना मिलेंगे, यही है दिल का वात सवका क्या फर्क परता, अगर पैसेके लिए हो बुरा किसीका! जब सोचना चाहिए, तब सोचेंगे नहीं बादमें पछताना पड़े तो भी सही, अकलके मारे नहीं, अकल है पर पैसेके चाहत में धीरे हुए हैं जब आते हैं प्रायश्चित का समय कितना कुछ करतेहे, पूजा करतेहे, मन्नत मांगतेहे पर काम किसीसे भी नहीं होता क्योंकि, बुड़ा काम का अंजाम भुगतना पड़ताहे। परिये अगले कविता (विमारी) परिये पिछले कविता (रास्ता)